Nov 24, 2018

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Nov 13, 2018

मोहन सिंह ओबेरॉय जीवनी - Biography Of Mohan Singh Oberoi


नाम :– मोहन सिंह ओबेरॉय।
जन्म :– 15 अगस्त 1898, झेलम जिला, पंजाब ।
पिता : ।
माता : ।
पत्नी/पति :– ।

प्रारम्भिक जीवन :
        झेलम जिले के भाऊन में एक सामान्य से परिवार में जन्में मोहन सिंह जब केवल छह माह के थे तभी उनके सर से पिता का साया उठ गया था। ऐसी हालत में घर चलाने और बच्चों को पालने की जिम्मेदारी उनकी मां के कंधों पर आ गई। उन दिनों एक महिला के लिए इतनी बड़ी जिम्मेदारी उठाना कतई आसान नहीं होता था। गांव में किसी तरह स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद मोहन सिंह रावलपिंडी चले आए। यहां उन्होंने एक सरकारी कॉलेज में दाखिला लिया। कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद वे नौकरी की तलाश में निकले, लेकिन काफी भटकने के बाद भी उन्हें नौकरी नहीं मिली।

        नौकरी की तलाश में भटक रहे मोहन सिंह को उनके एक मित्र ने टाइपिंग और स्टेनोग्राफी सीखने की सलाह दी। उन्होंने अमृतसर में एक टाइपिंग इंस्टीट्यूट में टाइपिंग सीखना शुरू किया, लेकिन जल्द ही उन्हें यह अहसास होने लगा कि इससे भी उन्हें नौकरी नहीं मिलने वाली। इन दिनों वे केवल यही सोचते थे कि कैसे भी उन्हें कोई नौकरी मिल जाए, जिससे वे अपनी मां के कंधों का बोझ कम कर सके।

         लेकिन नौकरी न मिलने की वजह से वे असहाय महसूस करने लगे थे। अमृतसर जैसे शहर में रहने के एवज में उन्हें काफी पैसे खर्च करने पड़ रहे थे। जब उनके पैसे खत्म होने को आए तो वे 1920 में अपने गांव वापस चले आए। गांव वापस आने पर उनकी शादी कोलकाता के एक परिवार से हो गई।

होटल :
        राय बहादुर मोहन सिंह ओबेराय समूह के संस्थापक अध्यक्ष ने साल १९३४ को एक अंग्रेज से दो प्रापर्टी– थी क्लार्कस दिल्ली और थी क्लार्कस शिमला को खरीदा। बाद में आये वर्षों में अपने दो बेटों, तिलक राज सिंह ओबरॉय और पृथ्वी राज सिंह ओबरॉय के सहायता के साथ भारत में और विदेशों में ओबेराय समूह का विस्तार जारी रखा। थी ओबेराय गुरगावं के अलावा, ओबेराय ब्रांड के अधीकार में १८ लक्श्वरी होटेल्स और३ लक्श्वरी जहाज भारत, मॉरीशस, ईगिप्त, इन्डोनेशिया और सौदी अरेबिया में है।

        मोहन सिंह ओबेराय और उनकी पत्नी ईसार देवी होटल के लिए मीट और सब्जियां खुद खरीदने जाते थे। उन्होंने इस बिल में 50 फीसदी की कमी ला दी। किताब के अनुसार मोहन सिंह ओबेराय ने अपने संस्मरण में लिखा है कि मेरे सिसिल होटल में नौकरी ग्रहण करने के शीघ्र बाद ही होटल के प्रबंधन मे महत्वपूर्ण तब्दीली आई। मिस्टर ग्रोव से क्लार्क ने कार्यभार संभाला।

        पहली बार भाग्य ने साथ दिया और मेरे स्टेनोग्राफी के ज्ञान के कारण मुझे कैशियर और स्टेनोग्राफर दोनों का पदभार मिला। ओबेराय वन्य्विलास, रणथंभौर को २०१२ में कोंडे नास्ट ट्रैवलर, संयुक्त राज्य अमेरिका के पाठकों द्वारा एशिया में शीर्ष १५ रिसॉर्ट्स में स्थान दिया गया है। इस के अलावा, ओबेराय अमर्विलास, आगरा को दुनिया में ५ वां सबसे अच्छे होटल का स्थान दिया गया है। ओबेराय राजविलास, जयपुर को दुनिया में १३ वीं सबसे अच्छे होटल का स्थान दिया गया और ओबेराय उदयविलास, उदयपुर को दुनिया में ४ वां सबसे अच्छे होटल का स्थान दिया गया। इसी सर्वेक्षण में एशिया में शीर्ष ४ होटलों में वे शुमार है।

        ओबरॉय होटल्स एंड रिसॉर्ट्स को २००७ में संयुक्त राज्य अमेरिका के बाहर सर्वश्रेष्ठ होटल चेन के रूप में और २००८ में ब्रिटेन के बाहर सर्वश्रेष्ठ होटल चेन के रूप में सम्मानित किया गया। ट्राइडेंट होटलस को 'बेस्ट फर्स्ट क्लास होटल ब्रांड' का स्थान गैलीलियो एक्सप्रेस ट्रेवल वर्ल्ड अवार्ड्स में २००४ के बाद से लगातार चार साल तक दिया गया। मुंबई के ओबेराय होटल को सीएनबीसी आवाज ट्रैवल अवार्ड्स द्वारा २००८ में 'भारत में बेस्ट बिजनेस होटल' का स्थान दिया गया।

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विक्रम सेठ जीवनी - Biography Of Vikram Seth

नाम :– विक्रम सेठ ।
जन्म :– 20 जून 1952 कोलकाता, भारत ।
पिता : लीला सेठ ।
माता : सेलिया ।
पत्नी/पति :– ।

प्रारम्भिक जीवन :
        विक्रम सेठ का जन्म कोलकाता, भारत में 20 जून 1952 को हुआ था। उनके पिता प्रेम नाथ सेठ, बाटा शूज़ के कार्यकारी थे और उनकी मां लीला सेठ, ट्रेनिंग द्वारा बैरिस्टर, दिल्ली उच्च न्यायालय की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश बन गईं। उन्होंने सेंट माइकल हाई स्कूल, पटना और देहरादून में द डॉन स्कूल में अध्ययन किया, जहां उन्होंने द डॉन स्कूल वीकली संपादित किया।

        डून से स्नातक होने के बाद, सेठ अपने ए-लेवल को पूरा करने के लिए इंग्लैंड के टोंब्रिज स्कूल गए। उन्होंने सेंट जेवियर्स हाई स्कूल, पटना में भी अध्ययन किया। बाद में वह यूनाइटेड किंगडम चले गए और ऑक्सफोर्ड कॉर्पस क्रिस्टी कॉलेज में दर्शनशास्त्र, राजनीति और अर्थशास्त्र पढ़ा। उसके बाद उन्होंने पीएचडी का पीछा किया। स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र में हालांकि इसे कभी पूरा नहीं किया।

        लंदन में कई सालों तक रहने के बाद, सेठ इंग्लैंड के सैलिसबरी के पास निवास रखती है, जहां वह स्थानीय साहित्यिक और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भाग लेने वाले हैं, जिन्होंने 1996 में एंग्लिकन कवि जॉर्ज हर्बर्ट के घर को खरीदा और पुनर्निर्मित किया था, और जयपुर में, इंडिया। विक्रम सेठ ने अपनी पुस्तकों के लिए बहुत अधिक ख्याति प्राप्त की। विक्रम सेठ एक उपन्यासकार होने के साथ-साथ एक अच्छे कवि भी हैं।

        उनकी कविता के पांच खंड प्रकाशित हुए हैं, जिनमें से पहला, मैपिंग्स को 1980 में निजी तौर पर प्रकाशित किया गया था। इनकी अन्य कविता संग्रह में 1985 की द हम्बल एडमिनिस्ट्रेटर्स गार्डन, 1990 की ऑल यू हू स्लीप टुनाइट, 1991 की बीस्टली टेल्स और 1992 की थ्री चाइनीज पोएट्स आदि शामिल हैं। उन्होंने यात्रा लेखन में भी कार्य किया है। वह अपनी पुस्तक ट्रेवल्स थ्रू सिंकियांग एंड तिबेट के लिए बहुत प्रसिद्ध हुए, जो 1983 में प्रकाशित हुई थी।

        1986 में आई इनकी एक उपन्यास ‘द गोल्डन गेट’ अद्वितीय थी क्यु की के पूरी किताब कविता के रूप मी थी और ये सिलिकॉन वैली के लोगों के जीवन के बारे में बताती है। यह उपन्यास अलेक्सांद्र पुश्किन का कार्य ‘यूजीने ओनेगिन’से प्रेरित है। यह किताब काफ़ी सफ़ल रही और साहित्यिक प्रेस से उन्हें काफ़ी प्रशंसा भी प्राप्त हुई। 1990 में इन्होने ‘आल यू हु स्लीप टुनाइट’ नामक कविता की किताब लिखी। और 1992 में ‘थ्री चायनीज पोएट्स’ नाम की कविता की पुस्तक लिखी है।

        1999 में, उनके उपन्यास 'समान संगीत' प्रकाशित किया गया था। कहानी एक पेशेवर वायलिनिस्ट माइकल, और उसके प्यार, जूलिया, एक पियानोवादक के आसपास घूमती है। उपन्यास संगीत प्रशंसकों द्वारा अच्छी तरह से प्राप्त किया गया था, और विक्रम सेठ के संगीत के विवरण की सटीकता के लिए सराहना की गई थी।
2005 में, वह अपने दूसरे गैर-कथा कार्यों, 'टू लाइव्स' के साथ बाहर आया। यह उनके महान चाचा, शांति बेहारी सेठ और उनकी जर्मन यहूदी महान चाची, हेनरल गर्डा कैरो की कहानी है। वह वर्तमान में 'ए सूटेबल बॉय' नामक 'ए सूटेबल बॉय' के अनुक्रम पर काम कर रहा है जिसे 2016 में रिलीज़ किया जा सकता है।

पुरस्कार :
        थॉमस कुक ट्रैवल बुक अवार्ड (1983) (हेवेन लेक: ट्रेवल्स थ्रू सिंकियांग एंड तिब्बत); कॉमनवेल्थ काव्य पुरस्कार (एशिया) (1985) (द विनम्र प्रशासक गार्डन); कॉमनवेल्थ राइटर्स पुरस्कार – कुल मिलाकर विजेता, सर्वश्रेष्ठ पुस्तक (1994) (ए उपयुक्त ब्वॉय); एसएच स्मिथ लिटरेरी अवार्ड (1994) (ए उपयुक्त बॉय); क्रॉसवर्ड बुक अवार्ड्स (1999) (एक समान संगीत); बेस्ट बुक / नोवेल (2001) (एक समान संगीत) के लिए ईएमएमए (बीटी जातीय और बहुसांस्कृतिक मीडिया पुरस्कार); साहित्य और शिक्षा में पद्म श्री (2007)।

साहित्य :
द गोल्डन गेट (1986)
अ सूटेबल बॉय (1993)
आन इक्वल म्यूजिक (1999)
अरिओन एंड द डॉलफिन (1994)
फ्रॉम हेवन लेक: ट्रेवल्स थ्रू सिंकियांग एंड तिबेट (1983)
टू लाइव (2005)
द रिवेरेड अर्थ (2005)
द अम्बल एडमिनिस्ट्रेटर्स गार्डन (1985)
मप्पिंग्स (1986)
आल यू हु स्लीप टुनाइट (1990)
बीस्टली टेल्स (1991)
थ्री चायनीज पोएट्स (1992)
समर रिक्विम: अ बुक ऑफ़ पोयम्स (2012)
द फ्रॉग एंड नाइटिंगेल (1994)

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मुल्कराज आनंद जीवनी - Biography Of Mulk Raj Anand


नाम :– मुल्कराज आनंद ।
जन्म :– 12 दिसंबर 1905 पेशावर।
पिता : ।
माता : ।
पत्नी/पति :– शिरिन वाजिफादर।

प्रारम्भिक जीवन :
        मुलक राज आनंद एक भारतीय लेखक थे, जो परंपरागत भारतीय समाज में गरीब जातियों के जीवन के चित्रण के लिए उल्लेखनीय थे। इंडो-एंग्लियन कथाओं के अग्रदूतों में से एक, वह, आर के नारायण, अहमद अली और राजा राव के साथ, अंतरराष्ट्रीय पाठकों को प्राप्त करने के लिए अंग्रेजी में भारत के पहले लेखकों में से एक थे। आनंद को उनके उपन्यासों और लघु कथाओं के लिए प्रशंसा की जाती है, जिन्होंने आधुनिक भारतीय अंग्रेजी साहित्य के क्लासिक कामों की स्थिति हासिल की है, जो पीड़ितों के जीवन में उनकी समझदार अंतर्दृष्टि और गरीबी के उनके विश्लेषण, शोषण और दुर्भाग्य के विश्लेषण के लिए उल्लेखनीय हैं। वह अंग्रेजी में पंजाबी और हिंदुस्तान मुहावरे को शामिल करने वाले पहले लेखकों में से एक होने के लिए भी उल्लेखनीय है और पद्म भूषण के नागरिक सम्मान प्राप्तकर्ता थे।

        यह एक विडंबना है कि उन्होंने अपने परिवार की समस्याओं के कारण साहित्यिक कैरियर की शुरुआत की थी। उनका पहला निबंध उनकी चाची की आत्महत्या की प्रतिक्रिया से संबंधित था, जिसे उनके परिवार द्वारा मुसलमान के साथ भोजन साझा करने के कारण बहिष्कृत किया गया था। उनका पहला उपन्यास “अनटचेबल” वर्ष 1935 में प्रकाशित हुआ था, जिसमें उन्होंने भारत की “अछूत” समस्या का बेबाक चित्रण किया था।

        उनका दूसरा उपन्यास “कुली” एक बाल श्रमिक के रूप में काम कर रहे 15 वर्षीय लड़के पर आधारित था, जो तपेदिक से ग्रस्त होने के कारण मर जाता है। मुल्कराज आनंद ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में भी भाग लिया था और स्पेनिश नागरिक युद्ध में गणतंत्रवादियों के साथ लड़े थे। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, उन्होंने लंदन में बीबीसी के लिए एक पटकथा लेखक के रूप में काम किया था, जहाँ वह जॉर्ज ऑरवेल के मित्र बन गए थे।

        कुली अन्तर्राष्टीय ख्याति के भारतीय लेखक डाँ मुल्कराज का युगान्तकारी उपन्यास है,जो अपने प्रथम प्रकाशन के कोई 60-65 साल बाद भी प्रांसगिक बना हुआ है। यह हिमाचल प्रदेश के काँगड़ा इलाके के एक ऐसे अनाथ और विपन्न किशोर को केन्द्र में रखकर लिखा गया है, जिसे पेट भरने के लिए मुम्बई जैसे महानगर की खाक छाननी पड़ी, गलाजत की जिन्दगी जीनी पड़ी और तब भी वह दो दानों का मोहताज बना रहा।

         क्षयग्रस्त शरीर के बावजूद परिस्थितियाँ उसे हाथ-रिक्शा खींचने वाले कुली का पेशा करने को मजबूर कर देती हैं। तब भी क्या मुन्नू नाम का वह अनाथ-विपन्न किशोर भूख और दुर्भाग्य को पछाड़ने में कामयाब हो पाया। स्थान काल-पात्रों की दृष्टि से बहुत विस्तृत फलक पर रचा गया यह उपन्यास यद्यपि ब्रिटिश भारत में घटित होता है,किन्तु अभावग्रस्त ग्रामीण जीवन को जिन सामाजिक आर्थिक परिस्थितियों से टकराते-जूझते यहाँ दिखाया गया है वे पहले की तुलना में आज और अधिक गम्भीर और अधिक जटिल हुई हैं।

        साहित्य जगत में मुल्कराज आनंद का नाम हुआ उनके उपन्यास अनटचेबल्स से जिसमें उन्होंने भारत में अछूत समस्या पर बारीक और ठोस चित्रण किया। अनटचेबल्स की भूमिका लिखी थी प्रख्यात अंग्रेज़ी लेखक ई एम फ़ोर्स्टर ने। अपने अगले उपन्यासों कुली, टू लीव्स एंड अ बड, द विलेज, अक्रॉस द ब्लैक वाटर्स और द सोर्ड एंड द सिकल में भी उन्होंने पीड़ितों की व्यथा को उकेरा। भारत की आज़ादी के लिए जारी संघर्ष से प्रभावित होकर मुल्कराज आनंद 1946 में भारत लौट गए।

        पेशावर में 12 दिसंबर 1905 को पैदा हुए आनंद अमृतसर के खालसा कॉलेज से पढ़ाई करने के बाद इंग्लैंड चले गए और कैम्ब्रिज तथा लंदन विश्वविद्यालय में पढ़ाई की। पीएचडी की उपाधि प्राप्त करने के बाद उन्होंने लीग ऑफ नेशंस स्कूल ऑफ इंटेलेक्चुअल को-ऑपरेशन जिनेवा में अध्यापन किया।  दूसरे विश्व युद्ध के बाद वे भारत लौट आए और तत्कालीन बंबई में स्थायी रूप से रहने लगे। 1948 से 1966 तक उन्होंने देश के कई विश्वविद्यालयों में अध्यापन किया। बाद में वे ललित कला अकादमी और लोकायत ट्रस्ट से भी जुड़े। 28 दिसंबर 2004 में पुणे में उनका निधन हो गया। वे अंतिम समय तक सक्रिय रहे और साहित्य सृजन और समाज सेवा करते रहे।

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ईश्वर चन्द्र विद्यासागर जीवनी - Biography Of Ishwar Chandra Vidyasagar


नाम :  ईश्वर चन्द्र विद्यासागर ।
जन्म : २६ सितम्बर १८२०, बंगाल ।
पिता :  ठाकुरदास बंद्योपाध्याय ।
माता : भगवती देवी ।
पत्नी/पति :  दीनामणि देवी ।

प्रारम्भिक जीवन :
        ईश्वर चंद्र विद्यासागर सीआईई ईश्वर चंद्र बांंडोपाध्याय भारतीय उपमहाद्वीप से बंगाली बहुलक था, और बंगाल पुनर्जागरण का एक प्रमुख व्यक्ति था। वह एक दार्शनिक, अकादमिक शिक्षक, लेखक, अनुवादक, प्रिंटर, प्रकाशक, उद्यमी, सुधारक और परोपकारी थे। बंगाली गद्य को सरल बनाने और आधुनिकीकरण के उनके प्रयास महत्वपूर्ण थे। उन्होंने बंगाली वर्णमाला और प्रकार को भी तर्कसंगत और सरलीकृत किया, जो चार्ल्स विल्किन्स और पंचानन कर्मकर ने 1780 में पहली (लकड़ी) बंगाली प्रकार काट दिया था क्योंकि उन्होंने विधवा पुनर्विवाह अधिनियम को पारित करने के लिए मजबूर किया था।

        ईश्वर चंद्र बांंडोपाध्याय का जन्म हिंदू ब्राह्मण परिवार में थकुरदास बांंडोपाध्याय और भगवती देवी के लिए 26 सितंबर 1820 को पश्चिम बंगाल के पश्चिम बंगाल के पश्चिम पूर्व बंगाल के पश्चिम पूर्व बंगाल के घायल उपखंड में बिर्सिंगा गांव में हुआ था। 9 साल की उम्र में, वह कलकत्ता गए और रहने लगे बुराबाजार में भागबत चरण के घर में, जहां ठाकुरदास कुछ वर्षों से पहले ही रह रहे थे।

        भगवान ने भागबत के बड़े परिवार के बीच आसानी से महसूस किया और किसी भी समय आराम से बस गए। भगवान की सबसे छोटी बेटी रैमोनी की ईश्वर की ओर मातृभाषा और स्नेही भावनाओं ने उन्हें गहराई से छुआ और भारत में महिलाओं की स्थिति के उत्थान की दिशा में उनके बाद के क्रांतिकारी काम पर एक मजबूत प्रभाव पड़ा।

        वह अपने सबक के माध्यम से झुका और सभी आवश्यक परीक्षाओं को मंजूरी दे दी। उन्होंने 1829 से 1841 के दौरान संस्कृत कॉलेज में वेदांत, व्याकरण, साहित्य, रेटोरिक, स्मृति और नैतिकता सीखी। उन्होंने नियमित छात्रवृत्ति अर्जित की और बाद में अपने परिवार की वित्तीय स्थिति का समर्थन करने के लिए जोरासंको के एक स्कूल में एक शिक्षण पद संभाला।

        उन्होंने 1839 में संस्कृत में एक प्रतियोगिता परीक्षण ज्ञान में भाग लिया और 'विद्यासागर' का अर्थ अर्जित किया जिसका अर्थ ज्ञान का महासागर था। उसी वर्ष ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने सफलतापूर्वक अपनी कानून परीक्षा को मंजूरी दे दी। विद्यासागर ने चौदह वर्ष की उम्र में दीनामनी देवी से विवाह किया और इस जोड़े के पुत्र है नारायण चंद्र।

        विद्यासागर को संस्कृत कॉलेज में प्रचलित मध्यकालीन शैक्षिक प्रणाली को पूरी तरह से पुनर्निर्मित करने और शिक्षा प्रणाली में आधुनिक अंतर्दृष्टि लाने की भूमिका के साथ श्रेय दिया जाता है। जब वह प्रोफेसर के रूप में संस्कृत कॉलेज वापस आए, तब विद्यासागर ने पहला परिवर्तन संस्कृत के अलावा अंग्रेजी और बंगाली को सीखने के माध्यम के रूप में शामिल करना था। उन्होंने वैदिक ग्रंथों के साथ यूरोपीय इतिहास, दर्शनशास्त्र और विज्ञान के पाठ्यक्रम पेश किए।

        ईश्वरचंद्र विद्यासागर ब्रह्म समाज नामक संस्था के सदस्य थे. स्त्री की शिक्षा के साथ-साथ उन्होंने विधवा विवाह और विधवाओ की दशा सुधारने का काम भी किया. इसके लिए ईश्वरचंद्र विद्यासागर को बहुत सी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा. अंत में विधवा विवाह को क़ानूनी स्वीकृति प्राप्त हो गयी. सुधारवादी विचारधाराओ का जनता के बीच प्रचार करने के लिए ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने अंग्रेजी व बंगला में पत्र निकाले.

        ईश्वरचंद्र विद्यासागर का कहना था की कोई भी व्यक्ति अच्छे कपडे पहनने, अच्छे मकान में रहने तथा अच्छा खाने से ही बड़ा नहीं होता बल्कि अच्छे काम करने से बड़ा होता है. ईश्वरचंद्र विद्यासागर 19वी शताब्दी के महान विभूति थे. उनकी मृत्यु 62 वर्ष की आयु में संवत 1948 में हुई. उन्होंने अपने समय में फैली अशिक्षा और रूढ़िवादिता को दूर करने का संकल्प लिया. अनेक कठिनाइयों का सामना करते हुए उन्होंने शैक्षिक, सामाजिक और महिलाओ की स्थिति में सुधार किये.

        अपनी सहनशीलता, सादगी तथा देशभक्ति के लिए प्रसिद्ध और एक शिक्षाशास्त्री के रूप में विशिष्ट योगदान करने वाले ईश्वर चन्द्र विद्यासागर का निधन 29 जुलाई, 1891 को कोलकाता में हुआ। विद्यासागर जी ने आर्थिक संकटों का सामना करते हुए भी अपनी उच्च पारिवारिक परम्पराओं को अक्षुण्ण बनाए रखा था। संकट के समय में भी वह कभी अपने सत्य के मार्ग से नहीं डिगे। उनके जीवन से जुड़े अनेक प्रेरक प्रसंग आज भी युवा वर्ग को प्रेरणा प्रदान करते हैं।



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नीरद चंद्र चौधरी जीवनी - Biography Of Nirad Chandra Chaudhuri


नाम :  नीरद चंद्र चौधरी ।
जन्म : 23 नवम्बर 1897, बंगाल ।
पिता :   ।
माता :  ।
पत्नी/पति :  ।

प्रारम्भिक जीवन :

        निर्रा चन्द्र चौधरी एक भारतीय बंगाली-अंग्रेज़ी लेखक और पत्र के व्यक्ति थे। उनका जन्म 1897 में किशोरगंज में एक हिंदू परिवार में हुआ था. चौधरी ने अंग्रेजी और बंगाली में कई लेख लिखे। उनका ओवेर 19 वीं और 20 वीं सदी में ब्रिटिश उपनिवेशवाद के संदर्भ में विशेष रूप से भारत के इतिहास और संस्कृतियों का एक मजिस्ट्रेट मूल्यांकन प्रदान करता है। 

        चौधरी 1951 में प्रकाशित एक अज्ञात भारतीय की आत्मकथा के लिए सबसे अच्छी तरह से जाने जाते हैं। उनके साहित्यिक करियर के दौरान, उन्हें अपने लेखन के लिए कई सम्मान प्राप्त हुए। 1966 में, द कॉन्टिनेंट ऑफ सर्स को डफ कूपर मेमोरियल अवॉर्ड से सम्मानित किया गया, जिससे चौधरी को पहला और एकमात्र भारतीय पुरस्कार दिया गया। साहित्य अकादमी, भारत के राष्ट्रीय एकेडमी ऑफ लेटर्स ने मैक्स मुलर, विद्वान असाधारण पर अपनी जीवनी के लिए चौधरी को साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया।

        चौधरी एक देश के वकील और एक अज्ञात मां का बेटा था। अपने युवाओं में उन्होंने विलियम शेक्सपियर के साथ-साथ संस्कृत क्लासिक्स पढ़े, और उन्होंने पश्चिमी संस्कृति की प्रशंसा की जितनी उन्होंने स्वयं की। भारतीय साहित्यिक दृश्य पर उनकी शुरुआत विवाद से भरा हुआ था। उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य की याद में अपनी पहली पुस्तक, द आत्मकथा ऑफ़ अ अज्ञात भारतीय (1951) को समर्पित किया। 

        उन्होंने दृढ़ता से विश्वास किया कि "जो कुछ भी अच्छा था और हमारे भीतर रहना उसी ब्रिटिश शासन द्वारा बनाया गया था, आकार दिया गया था और उसे तेज कर दिया गया था।" कहने की जरूरत नहीं है कि यह भावना एक नए स्वतंत्र राष्ट्र में लोकप्रिय है जो इसकी असुरक्षा और जहां से जूझ रही है anticolonial भावना प्रचलित था। चौधरी की पुस्तक को उत्साहित किया गया था, और वह अखिल भारतीय रेडियो (एआईआर) के लिए एक प्रसारणकर्ता और राजनीतिक टिप्पणीकार के रूप में अपनी नौकरी से घिरा हुआ था। "आखिरी ब्रिटिश साम्राज्यवादी" और आखिरी "ब्राउन साहिब" कहा जाता है, उन्हें भारतीय साहित्यिक द्वारा बहिष्कृत किया गया था।

        नीरद चन्द्र चौधरी को 'अंतिम ब्रिटिश साम्राज्यवादी' और 'अंतिम भूरा साहब' कहा गया। उनकी कृति की लगातार आलोचना की गई तथा भारत के साहित्यिक जगत् से उन्हें निष्कासित कर दिया गया। स्वनिर्वासन के तौर पर 1970 के दशक में वह इंग्लैंण्ड रवाना हो गए और विश्वविद्यालय शहर ऑक्सफ़ोर्ड में बस गए। उनके लिए यह घर लौटने के समान था। लेकिन यह घर उस इंग्लैण्ड से काफ़ी भिन्न था, आदर्श रूप में चौधरी जिसकी कल्पना करते थे।

        चौधरी अपनी उम्र के एक आदमी के लिए उल्लेखनीय रूप से उत्साहजनक और चुस्त थे। लिविंग रूम का सबसे प्रभावशाली पहलू डिस्प्ले पर किताबें है - चतुउब्रिंड, ह्यूगो, मोलिएर, पास्कल, फ्लैबर्ट और रोचेफौकौल्ड। वह या तो फ्रांसीसी साहित्य और दर्शन के आंशिक हैं या उन्हें प्रदर्शित करने के लिए पसंद करते हैं।

        लेकिन यह संगीत है जो उसे galvanises। वह सीधे अपने आगंतुक को दाढ़ी देता है: "मुझे बताओ कि क्या आप संगीत को पहचान सकते हैं।" जब अनुमान निराशाजनक रूप से गलत होता है, तो वह मध्ययुगीन बारोक के गुणों पर विस्तार करने के लिए आगे बढ़ता है और फिर रिकॉर्ड बदलने के लिए कमरे में सीमाबद्ध होता है।

सम्मान :


        इंग्लैण्ड में भी नीरद चौधरी उतने ही अलग-थलग थे, जितने भारत में। अंग्रेज़ों ने उन्हें सम्मान दिया, उन्हें 'ऑ'क्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय' से मानद डॉक्टरेट की उपाधि मिली। उन्हें महारानी की ओर से मानद सी.बी.ई. से सम्मानित किया गया, लेकिन वे लोग उनकी दृढ़ भारतीयता के साथ ब्रिटिश साम्राज्य के पुराने वैभव की उनकी यादों के क़ायल नहीं हो पाए।

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अरुंधति राय जीवनी - Biography Of Arundhati Roy


नाम :  अरुंधति राय ।
जन्म : 24 नवम्बर 1961, शिलौंग ।
पिता :  ।
माता : ।
पत्नी/पति :  ।

प्रारम्भिक जीवन :

        अरुंधति राय  अंग्रेजी की सुप्रसिद्ध लेखिका और समाजसेवी हैं। अरुंधति राय अंग्रेजी की सुप्रसिद्ध लेखिका हैं, जिन्होंने कुछेक फ़िल्मों में भी काम किया है। "द गॉड ऑफ़ स्मॉल थिंग्स" के लिये बुकर पुरस्कार प्राप्त अरुंधति राय ने लेखन के अलावा नर्मदा बचाओ आंदोलन समेत भारत के दूसरे जनांदोलनों में भी हिस्सा लिया है। कश्मीर को लेकर उनके विवादास्पद बयानों के कारण वे पिछले कुछ समय से चर्चा में हैं।

         शिलौंग में 24 नवम्बर 1961 को जन्मी अरुंधति राय ने अपने जीवन के शुरुवाती दिन केरल में गुज़ारे। उसके बाद उन्होंने आर्किटेक्ट की पढ़ाई दिल्ली से की। अपने करियर की शुरुवात उन्होंने अभिनय से की। मैसी साहब फिल्म में उन्होंने प्रमुख भूमिका निभाई। इसके अलावा कई फिल्मों के लिये पटकथायों भी उन्होंने लिखीं। जिनमें In Which Annie Gives It Those Ones (1989), Electric Moon (1992) को खासी सराहना मिली। १९९७ में जब उन्हें उपन्यास गॉड ऑफ स्माल थिंग्स के लिये बुकर पुरस्कार मिला तो साहित्य जगत का ध्यान उनकी ओर गया।

        अरुंधति ने पुरस्कृत फिल्म मैसी साहिब में एक गाँव की लड़की की भूमिका निभाई थी और अरुंधति ने व्हिच ऐनी गिव्स इट दोज वन्स और इलेक्ट्रिक मून के लिए पटकथा की भी रचना की। जब वर्ष 1996 में अरुंधति रॉय की पुस्तक द गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स प्रकाशित हुई, तो वह रातों रात एक सेलिब्रिटी बन गईं। द गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स की सफलता के बाद रॉय के कई निबंध प्रकाशित हुए और उन्होंने सामाजिक मामलों के लिए भी काम किया।

        अरुंधति रॉय संयुक्त राज्य अमेरिका की नई-साम्राज्यवादी नीतियों की एक मुखर आलोचक रही हैं और उन्होंने भारत के परमाणु हथियार कार्यक्रम की आलोचना की है। अरुंधति रॉय ने द इंड ऑफ इमेजिनेशन (1998) नामक पुस्तक लिखी है, जिसमें उन्होंने भारत सरकार की परमाणु नीतियों की आलोचना की है। जून 2005 में अरुंधती रॉय ने ईराक के वर्ल्ड ट्रिब्यूनल में भी सहभागिता निभाई।

        1997 में उनके उपन्यास दी गॉड ऑफ़ स्माल थिंग्स को मैन बुकर प्राइज मिला। साथ ही इस किताब को ‘न्यू यॉर्क टाइम्स नोटेबल बुक्स ऑफ़ दी इयर 1997’ में भी शामिल किया गया। जब अरुंधती की दी गॉड ऑफ़ स्माल थिंग्स का प्रकाशन किया गया तब अरुंधती रॉय बुरी तरह से किसी दुसरे विवाद में उलझी हुई थी। रॉय ने फिल्मो में भी काम किया था। उनके दुसरे पति फिल्मनिर्माता प्रदीप किशन ने उन्हें फिल्म मेसी साब में छोटा सा रोल दिया था।

         इसके बाद अरुंधती ने बहुत से टेलीविज़न सीरीज जैसे भारतीय स्वतंत्रता अभियान और दो फिल्म, एनी और इलेक्ट्रिक मून के लिए लिखने का काम भी किया है। रॉय ने बहुत से सामाजिक और पर्यावरणीय अभियानों में भाग लिया है। आम आदमी की तरफ से मानवों पर हो रहे अत्याचारों के खिलाफ निडर होकर आवाज उठाने हिम्मत को देखकर उन्हें 2002 में लंनन कल्चरल फ्रीडम अवार्ड और 2004 में सिडनी पीस प्राइज और 2006 में साहित्य अकादमी अवार्ड से सम्मानित किया गया।

        1994 में अरुंधती राय को बहुत ध्यान मिला जब उन्होंने फूलन देवी के आधार पर शेखर कपूर की फिल्म बैंडिट क्विन की आलोचना की। उन्होंने अपनी फिल्म समीक्षा में "द ग्रेट इंडियन रैप ट्रिक" नामक फिल्म को निंदा किया। इसके अलावा, उन्होंने इस तथ्य की निंदा की जीवित बलात्कार पीड़ित की सहमति के बिना घटना को फिर से बनाया गया था।

        साथ ही, उन्होंने फूलन देवी के जीवन को गलत तरीके से प्रस्तुत करने और बहुत आंशिक तस्वीर स्केच करने के लिए कपूर पे आरोप लगाया। अपने बहुत प्रशंसित उपन्यास के बाद, रॉय ने फिर से एक पटकथा लेखक के रूप में काम करना शुरू किया और "द बानियन ट्री" और वृत्तचित्र "डीएएम / एजीई: ए फिल्म विद अरुंधती रॉय" (2002) जैसे टेलीविज़न धारावाहिकों के लिए लिखा। 2007 की शुरुआत में, रॉय ने घोषणा की कि वह अपने दूसरे उपन्यास पर काम करना शुरू कर देगी।

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गुलज़ार जीवनी - Biography Of Gulzar


नाम :  सम्पूर्ण सिंह कालरा।
जन्म : १८ अगस्त १९३६, पंजाब।
पिता :  ।
माता : ।
पत्नी/पति :  राखी गुलज़ार।

प्रारम्भिक जीवन :
        सम्पूर्ण सिंह कालरा उर्फ़ गुलज़ार भारतीय गीतकार,कवि, पटकथा लेखक, फ़िल्म निर्देशक तथा नाटककार हैं।  गुलजार को हिंदी सिनेमा के लिए कई प्रसिद्ध अवार्ड्स से भी नवाजा जा चुका है। उन्हें 2004 में भारत के सर्वोच्च सम्मान पद्म भूषण से भी नवाजा जा चूका है।  इसके अलावा उन्हें 2009 में डैनी बॉयल निर्देशित फिल्म स्लम्डाग मिलियनेयर मे उनके द्वारा लिखे गीत जय हो के लिये उन्हे सर्वश्रेष्ठ गीत का ऑस्कर पुरस्कार पुरस्कार मिल चुका है। इसी गीत के लिये उन्हे ग्रैमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है।

        गुलज़ार का जन्म भारत के झेलम जिला पंजाब के दीना गाँव में, जो अब पाकिस्तान में है, १८ अगस्त १९३६ को हुआ था। गुलज़ार अपने पिता की दूसरी पत्नी की इकलौती संतान हैं। उनकी माँ उन्हें बचपन में ही छोङ कर चल बसीं। माँ के आँचल की छाँव और पिता का दुलार भी नहीं मिला। वह नौ भाई-बहन में चौथे नंबर पर थे। बंट्वारे के बाद उनका परिवार अमृतसर (पंजाब, भारत) आकर बस गया, वहीं गुलज़ार साहब मुंबई चले गये। वर्ली के एक गेरेज में वे बतौर मेकेनिक काम करने लगे और खाली समय में कवितायें लिखने लगे। फ़िल्म इंडस्ट्री में उन्होंने बिमल राय, हृषिकेश मुख़र्जी और हेमंत कुमार के सहायक के तौर पर काम शुरू किया। बिमल राय की फ़िल्म बंदनी के लिए गुलज़ार ने अपना पहला गीत लिखा। गुलज़ार त्रिवेणी छ्न्द के सृजक हैं।

        गुलज़ार की शादी तलाकशुदा अभिनेत्री राखी गुलजार से हुई हैं।  हालंकि उनकी बेटी के पैदाइश के बाद ही यह जोड़ी अलग हो गयी।  लेकिन गुलजार साहब और राखी ने कभी भी एक-दूसरे से तलाक नहीं लिया।  उनकी एक बेटी हैं-मेघना गुलजार जोकि एक फिल्म निर्देशक हैं। एक उम्दा गीतकार होने साथ ही संजीदा निर्देशक भी थे. यह अलग बात है कि उनकी फिल्में बॉक्स आफिस पर कमाल नहीं दिखा पायीं. फिल्म निर्देशक के रूप में उनकी पहली फिल्म थी ‘मेरे अपने’(1971)। यह फिल्म तपन सिन्हा की बंगाली फिल्म अपंजन (1969). 

        इसके बाद उन्होंने कोशिश, अचानक, आंधी और परिचय जैसी फिल्मों का निर्देशन भी किया. 1972 में बनी कोशिश फिल्म में गुलजार के बेहद संवेदनशील नजरिए वाले निर्देशन में संजीव कुमार और जया भादुड़ी ने एक ऐसे प्रेमी जोड़े का बेहतरीन अभिनय किया जो सुनने और बोलने में असमर्थ था. इसके बाद गुलजार और संजीव कुमार की कैमिस्ट्री ऐसी बैठी की उनकी जोड़ी आंधी, मौसम, अंगूर और नमकीन जैसी फिल्मों में पूरी तरह सफल साबित हुई. गुलजार ने अमजद अली खान और पंडित भीमसेन जोशी पर बनीं डॉक्यूमेंटरी का भी निर्देशन किया है.

        गुलजार मूलत: उर्दू और पंजाबी के कवि हैं लेकिन बॉलीवुड के कई गानों में उन्होंने उत्तरी भारत की कई भाषाओं का प्रयोग किया है. भारत पाकिस्तान के बीच शांति के लिए दोनों देशों के कई मीडिया समूहों द्वारा चलाए गए पीस कैम्पेन ‘अमन की आशा’ के लिए ‘नजर में रहते हो…’ एन्थम की रचना की. इसे शंकर महादेवन और राहत फतेह अली खान ने गाया था.

        उनकी असल जिंदगी की कहानी फिल्मों से बिल्कुल अलग है। एक लेखक बनने से पहले, गुलजार एक कार मैकेनिक के रूप में काम करते थे। लेकिन जल्द ही उन्होंने बॉलीवुड में खुद के लिए एक जगह बना ली। हिंदी के अलावा, उन्होंने पंजाबी, मारवाड़ी, भोजपुरी जैसी अन्य भारतीय भाषाओं में अपनी लेखनी चलाई है। उन्होंने दो प्रसिद्ध कलाकारों- बिमल रॉय और ऋषिकेश मुखर्जी के साथ अपना करियर शुरू किया था।

लेखन :
• चौरस रात (लघु कथाएँ, 1962)
• जानम (कविता संग्रह, 1963)
• एक बूँद चाँद (कविताएँ, 1972)
• रावी पार (कथा संग्रह, 1997)
• रात, चाँद और मैं (2002)
• रात पश्मीने की
• खराशें (2003)

प्रमुख फ़िल्में (बतौर निर्देशक) :
• मेरे अपने (1971)
• परिचय (1972)
• कोशिश (1972)
• अचानक (1973)
• खुशबू (1974)
• आँधी (1975)
• मौसम (1976)
• किनारा (1977)
• किताब (1978)
• अंगूर (1980)
• नमकीन (1981)
• मीरा (1981)
• इजाजत (1986)
• लेकिन (1990)
• लिबास (1993)
• माचिस (1996)
• हु तू तू (1999)

पुरस्कार :
• पद्म भूषण सम्मान - 2004
• साहित्य अकादमी पुरस्कार - 2003 ‘धुआं’

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गिरीश कर्नाड जीवनी - Biography Of Girish Karnad


नाम :  गिरीश रघुनाथ कर्नाड।
जन्म : 19 May 1938, माथेरान।
पिता :  रघुनाथ कर्नाड।
माता : कृष्णाबाई कर्नाड ।
पत्नी/पति :  ।

प्रारम्भिक जीवन :
        गिरीश रघुनाथ कर्णद एक भारतीय अभिनेता, फिल्म निर्देशक, कन्नड़ लेखक,  नाटककार और रोड्स विद्वान हैं, जो मुख्य रूप से दक्षिण भारतीय सिनेमा और बॉलीवुड में काम करते हैं। 1960 के दशक में नाटककार के रूप में उनकी वृद्धि ने कन्नड़ में आधुनिक भारतीय नाटक लेखन की उम्र को चिह्नित किया, जैसे बादल सरकार ने बंगाली में किया, मराठी में विजय तेंदुलकर और हिंदी में मोहन राकेश। वह 1 99 8 में ज्ञानपीठ अवॉर्ड प्राप्तकर्ता हैं, जो भारत में सम्मानित उच्चतम साहित्यिक सम्मान है।

        चार दशकों के लिए कर्णद नाटक लिख रहा है, अक्सर समकालीन मुद्दों से निपटने के लिए इतिहास और पौराणिक कथाओं का उपयोग कर रहा है। उन्होंने अपने नाटकों का अंग्रेजी में अनुवाद किया है और प्रशंसा प्राप्त की है। उनके नाटकों का अनुवाद कुछ भारतीय भाषाओं में किया गया है और इब्राहिम अल्काज़ी, बी वी करंथ, एलिक पदमसी, प्रसन्ना, अरविंद गौर, सत्यदेव दुबे, विजया मेहता, श्यामानंद जालान, अमल एलाना और जफर मोहियुद्दीन जैसे निर्देशकों द्वारा निर्देशित किया गया है।  

        वह भारतीय सिनेमा की दुनिया में एक अभिनेता, निर्देशक और पटकथा लेखक के रूप में काम कर रहे हैं, हिंदी और कन्नड़ सिनेमा में, रास्ते में पुरस्कार कमाते हैं। उन्हें भारत सरकार द्वारा पद्मश्री और पद्म भूषण से सम्मानित किया गया और चार फिल्मफेयर पुरस्कार जीते, जिनमें से तीन सर्वश्रेष्ठ निर्देशक कन्नड़ और चौथे फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ पटकथा पुरस्कार के लिए फिल्मफेयर पुरस्कार हैं।

        गिरीश कर्नाड केवल एक सफल पटकथा लेखक ही नहीं, बल्कि एक बेहतरीन फ़िल्म निर्देशक भी हैं। उन्होंने वर्ष 1970 में कन्नड़ फ़िल्म 'संस्कार' से अपने सिने कैरियर को प्रारम्भ किया था। इस फ़िल्म की पटकथा उन्होंने स्वयं ही लिखी थी। इस फ़िल्म को कई पुरस्कार प्राप्त हुए थे। इसके पश्चात श्री कर्नाड ने और भी कई फ़िल्में कीं। उन्होंने कई हिन्दी फ़िल्मों में भी काम किया था। 

        इन फ़िल्मों में 'निशांत', 'मंथन' और 'पुकार' आदि उनकी कुछ प्रमुख फ़िल्में हैं। गिरीश कर्नाड ने छोटे परदे पर भी अनेक महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम और 'सुराजनामा' आदि सीरियल पेश किए हैं। उनके कुछ नाटक, जिनमें 'तुग़लक' आदि आते हैं, सामान्य नाटकों से कई मामलों में पूरी तरह से भिन्न हैं। गिरीश कर्नाड 'संगीत नाटक अकादमी' के अध्यक्ष पद को भी सुशोभित कर चुके हैं।

        स्त्री-पुरुष के आधे-अधूरेपन की त्रासदी और उनके उलझावपूर्ण संबंधों की अबूझ पहेली को देखने-दिखानेवाले नाटक तो समकालीन भारतीय रंग-परिदृश्य में और भी हैं, लेकिन जहाँ तक सम्पूर्णता की अंतहीन तलाश की असह्य यातनापूर्ण परिणति तथा बुद्धि (मन-आत्मा) और देह के सनातन महत्ता-संघर्ष के परिणाम का प्रश्न है-गिरीश कारनाड का हयवदन, कई दृष्टियों से, निश्चय ही एक अनूठा नाट्य प्रयोग है। इसमें पारंपरिक अथवा लोक-नाट्य रूपों के कई जीवंत रंग-तत्वों का विरल रचनात्मक इस्तेमाल किया गया है। 

        बेताल-पच्चीसी की सिरों और धड़ों की अदला-बदली की असमंजस-भरी प्राचीन कथा तथा टामस मान की ‘ट्रांसपोज्ड हैड्स’ की द्वंद्वपूर्ण आधुनिक कहानी पर आधारित यह नाटक जिस तरह देवदत्त, पद्मिनी और किल के प्रेम-त्रिकोण के समानान्तर हयवदन के उपाख्यान को गणेश-वंदना, भागवत, नट, अर्धपटी, अभिनटन, मुखौटे, गुड्डे-गुड़ियों और गीत-संगीत के माध्यम से एक लचीले रंग-शिल्प में पेश करता है, वह अपने-आप में केवल कन्नड़ नाट्य लेखन को ही नहीं, वरन् सम्पूर्ण आधुनिक भारतीय रंगकर्म की एक उल्लेखनीय उपलब्धि सिद्ध हुआ है।

पुरस्कार :

• 1972 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार
• 1974 में पद्मश्री
• 1992 में पद्मभूषण
• 1992 में कन्नड़ साहित्य अकादमी पुरस्कार
• 1994 में साहित्य अकादमी पुरस्कार
• 1998 में ज्ञानपीठ पुरस्कार
• 1998 में कालिदास सम्मान
• इसके अतिरिक्त गिरीश कर्नाड को कन्नड़ फ़िल्म ‘संस्कार’ के लिए सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिल चुका है।

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राजा राव जीवनी - Biography Of Raja Rao


नाम :  राजा राव ।
जन्म : 8 November 1908, मैसूर ।
पिता :  एच.व्ही. कृष्णास्वामी ।
माता : गौरामा ।
पत्नी/पति :  ।

प्रारम्भिक जीवन :
        राजा राव का जन्म 8 नवंबर, 1908 को मैसूर के रियासत राज्य (अब दक्षिण भारत में कर्नाटक में), हसन में कर्नाटक जाति के स्मर्थ ब्राह्मण परिवार में हुआसन में हुआ था। वह 9 भाई बहनों में से सबसे बड़े थे, जिनमें सात बहनें और एक भाई योगेश्वर आनंद नाम था। उनके पिता, एच.वी. कृष्णस्वामी ने हैदराबाद में निजाम कॉलेज में कर्नाटक की मूल भाषा कन्नड़ पढ़ाया। उनकी मां, गौरव, एक गृहस्थ थे, जब राजा राव 4 साल की उम्र में मर गए थे।

        चार वर्ष की उम्र में उनकी मां की मौत ने उपन्यासकार पर एक स्थायी प्रभाव डाला - एक मां और अनाथता की अनुपस्थिति उनके काम में आवर्ती थीम हैं। प्रारंभिक जीवन से एक और प्रभाव उनके दादा था, जिसके साथ वह हसन और हरिहल्ली या हरोहल्ली में रहते थे)। राव को एक मुस्लिम स्कूल, हैदराबाद में मदरसा-ए-अलीया में शिक्षित किया गया था। 1927 में मैट्रिक के बाद, राव ने निजाम कॉलेज में अपनी डिग्री के लिए अध्ययन किया। 

        उस्मानिया विश्वविद्यालय में, जहां वह अहमद अली के साथ दोस्त बन गए। उसने फ्रेंच सीखना शुरू किया। मद्रास विश्वविद्यालय से स्नातक होने के बाद, अंग्रेजी और इतिहास में महारत हासिल करने के बाद, उन्होंने विदेशों में अध्ययन के लिए 1929 में हैदराबाद सरकार की एशियाई छात्रवृत्ति जीती।

        राजा राव ने फ्रांस के मोंटनेलियर विश्वविद्यालय से फ्रांसीसी भाषा और साहित्य का अध्ययन किया। बाद में, राजा राव सोरबोन यूनिवर्सिटी ऑफ पेरिस में शामिल हो गये। उन्होंने सन् 1931 में मोंटपनेलियर की एक फ्रांसीसी शिक्षिका केमिले मौली से शादी कर ली और सन् 1939 में भारत लौट आए। हालांकि, विदेशों में अध्ययन करने के बाद भी राजा राव दिल से एक राष्ट्रवादी थे। 

        भारत लौटने के बाद, वह भारत के स्वतंत्रता संघर्ष में शामिल हो गए। वह आधुनिक भारतीय विचारों के एक संकलन, चेंजिंग इंडिया के सह-संपादक थे। उन्होंने बॉम्बे से ‘कल‘ पत्रिका का संपादन किया। सन् 1942 में, उन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया। एक राष्ट्रवादी होने के साथ-साथ राजा राव एक सामाजिक कार्यकर्ता भी थे। 

        वे सांस्कृतिक संगठनो के गठन के मामले में भी सबसे आगे रहते थे। उनके द्वारा गठित संगठनों में श्री विद्या समिति, प्राचीन भारत के आदर्शों को पुनर्जीवित करने के लिए पूर्ण रूप से समर्पित है, जोकि चेतना, भारतीय विचारों और मूल्यों के प्रसार में शामिल एक अन्य संगठन है।

        राव ने फ्रांस में पढ़ाई करते समय कन्नड़ में अपनी शुरुआती छोटी कहानियां लिखीं; उन्होंने फ्रेंच और अंग्रेजी में भी लिखा था। वह अंग्रेजी में अपने प्रमुख काम लिखने के लिए चला गया। 1930 के दशक की उनकी छोटी कहानियां द गाय ऑफ़ द बैरिकेड्स, और अन्य कहानियां (1947) में एकत्र की गई थीं। उन कहानियों की तरह, उनका पहला उपन्यास, कंथपुरा (1938), काफी हद तक यथार्थवादी नसों में है। 

        यह दक्षिणी भारत में एक गांव और इसके निवासियों का वर्णन करता है। गांव की पुरानी महिलाओं में से एक, अपने कथाकार के माध्यम से, उपन्यास भारत की स्वतंत्रता आंदोलन के प्रभावों की पड़ताल करता है। कंथपुरा राव का सबसे प्रसिद्ध उपन्यास है, खासकर भारत के बाहर।

        1929 में राव के जीवन में दो अन्य महत्वपूर्ण घटनाएं हुईं। सबसे पहले, उन्होंने विदेशों में अध्ययन के लिए हैदराबाद सरकार की एशियाई छात्रवृत्ति जीती। इसने अपने जीवन में एक नए चरण की शुरुआत की; उन्होंने फ्रांस में मोंटपेलियर विश्वविद्यालय में अध्ययन करने के लिए पहली बार भारत छोड़ दिया। 

        उसी वर्ष, राव ने कैमिली मौली से शादी की, जिन्होंने मोंटपेलियर में फ्रेंच पढ़ाया था। अगले दस सालों में केमिली निस्संदेह राव के जीवन पर सबसे महत्वपूर्ण प्रभाव था। उन्होंने न केवल उन्हें लिखने के लिए प्रोत्साहित किया बल्कि कई वर्षों तक उन्हें आर्थिक रूप से भी समर्थन दिया। 1931 में, उनके शुरुआती कन्नड़ लेखन जया कर्नाटक पत्रिका में शामिल होने लगे। 

        अगले दो वर्षों तक, राव ने सोरबोन में आयरिश साहित्य पर भारत के प्रभाव की खोज की। उनकी छोटी कहानियां एशिया (न्यूयॉर्क) और कैहिअर्स डु सुड (पेरिस) जैसे पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं। 1933 में, राव ने पूरी तरह से लिखने के लिए खुद को समर्पित करने के लिए शोध छोड़ दिया।

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Nov 12, 2018

अब्दुल रहीम खान-ए-खाना जीवनी - Biography Of Abdul Rahim Khan-I-Khana



 नाम :  अब्दुल रहीम ख़ान-ए-ख़ाना।
• जन्म : सन् १५५६, लाहौर।
• पिता : ।
• माता : ।
• पत्नी/पति :  ।

प्रारम्भिक जीवन :
        अबदुर्ररहीम खानखाना का जन्म संवत् १६१३ ई. में इतिहास प्रसिद्ध बैरम खाँ के घर लाहौर में हुआ था। संयोग से उस समय हुमायूँ सिकंदर सूरी का आक्रमण का प्रतिरोध करने के लिए सैन्य के साथ लाहौर में मौजूद थे। बैरम खाँ के घर पुत्र की उत्पति की खबर सुनकर वे स्वयं वहाँ गये और उस बच्चे का नाम “रहीम’ रखा। रहीम के पिता बैरम खाँ तेरह वर्षीय अकबर के अतालीक (शिक्षक) तथा अभिभावक थे। बैरम खाँ खान-ए-खाना की उपाधि से सम्मानित थे। वे हुमायूँ के साढ़ू और अंतरंग मित्र थे। रहीम की माँ वर्तमान हरियाणा प्रांत के मेवाती राजपूत जमाल खाँ की सुंदर एवं गुणवती कन्या सुल्ताना बेगम थी।

        जब रहीम पाँच वर्ष के ही थे, तब गुजरात के पाटण नगर में सन १५६१ में इनके पिता बैरम खाँ की हत्या कर दी गई। रहीम का पालन-पोषण अकबर ने अपने धर्म-पुत्र की तरह किया। शाही खानदान की परंपरानुरूप रहीम को 'मिर्जा खाँ' का ख़िताब दिया गया। रहीम ने बाबा जंबूर की देख-रेख में गहन अध्ययन किया। शिक्षा समाप्त होने पर अकबर ने अपनी धाय की बेटी माहबानो से रहीम का विवाह करा दिया। इसके बाद रहीम ने गुजरात, कुम्भलनेर, उदयपुर आदि युद्धों में विजय प्राप्त की। इस पर अकबर ने अपने समय की सर्वोच्च उपाधि 'मीरअर्ज' से रहीम को विभूषित किया। सन १५८४ में अकबर ने रहीम को खान-ए-खाना की उपाधि से सम्मानित किया। रहीम का देहांत ७१ वर्ष की आयु में सन १६२७ में हुआ। रहीम को उनकी इच्छा के अनुसार दिल्ली में ही उनकी पत्नी के मकबरे के पास ही दफना दिया गया। यह मज़ार आज भी दिल्ली में मौजूद हैं। रहीम ने स्वयं ही अपने जीवनकाल में इसका निर्माण करवाया था।

        अब्दुल रहीम खान-ए-खाना ने बाबर की आत्मकथा को तुर्की से फारसी में अनुवाद किया था। अब्दुल रहीम खान-ए-खाना थे तो मुस्लिम, परन्तु भगवान कृष्ण के एक अनन्य भक्त थे। रहीम भक्ति काल से संबंधित थे और भगवान कृष्ण की स्तुति में हिंदी में दोहे लिखा करते थे। उस समय कला और साहित्य में हिंदू और इस्लाम दोनों के बीच सिद्धांतों का एकीकरण था। उस समय विश्वसनीयता दो संप्रदायों में प्रचलित थी एक सगुण (इसमें माना जाता था कि भगवान कृष्ण, विष्णु एक आदि शक्ति का अवतार हैं) और दूसरा निर्गुण (जिसमें माना जाता था कि भगवान के पास कोई निश्चित रूप और आकार नहीं है)। रहीम सगुण भक्ति काव्य धारा के अनुयायी थे और कृष्ण के बारे में लिखा था।

        मुस्लिम धर्म के अनुयायी होते हुए भी रहीम ने अपनी काव्य रचना द्वारा हिन्दी साहित्य की जो सेवा की वह अद्भुत है। रहीम की कई रचनाएँ प्रसिद्ध हैं जिन्हें उन्होंने दोहों के रूप में लिखा। रहीम के ग्रंथो में रहीम दोहावली या सतसई, बरवै, मदनाष्ठ्क, राग पंचाध्यायी, नगर शोभा, नायिका भेद, श्रृंगार, सोरठा, फुटकर बरवै, फुटकर छंद तथा पद, फुटकर कवितव, सवैये, संस्कृत काव्य प्रसिद्ध हैं। रहीम ने तुर्की भाषा में लिखी बाबर की आत्मकथा "तुजके बाबरी" का फारसी में अनुवाद किया। "मआसिरे रहीमी" और "आइने अकबरी" में इन्होंने "खानखाना" व रहीम नाम से कविता की है। रहीम व्यक्तित्व बहुत प्रभावशाली था। वे मुसलमान होकर भी कृष्ण भक्त थे। रहीम ने अपने काव्य में रामायण, महाभारत, पुराण तथा गीता जैसे ग्रंथों के कथानकों को लिया है। आपने स्वयं को को "रहिमन" कहकर भी सम्बोधित किया है। इनके काव्य में नीति, भक्ति, प्रेम और श्रृंगार का सुन्दर समावेश मिलता है।

        आख़िरकार हारकर अकबर के कहने पर बैरम ख़ाँ हज के लिए चल पड़े। वह गुजरात में पाटन के प्रसिद्ध सहस्रलिंग तालाब में नौका विहार या नहाकर जैसे ही निकले, तभी उनके एक पुराने विरोधी - अफ़ग़ान सरदार मुबारक ख़ाँ ने धोखे से उनकी पीठ में छुरा भोंककर उनका वध कर डाला। कुछ भिखारी लाश उठाकर फ़क़ीर हुसामुद्दीन के मक़बरे में ले गए और वहीं पर बैरम ख़ाँ को दफ़ना दिया गया। 'मआसरे रहीमी' ग्रंथ में मृत्यु का कारण शेरशाह के पुत्र सलीम शाह की कश्मीरी बीवी से हुई लड़की को माना गया है, जो हज के लिए बैरम ख़ाँ के साथ जा रही थी। इससे अफ़ग़ानियों को अपनी बेहज़्ज़ती महसूस हुई और उन्होंने हमला करके बैरम ख़ाँ को समाप्त कर दिया।

        लेकिन यह सम्भव नहीं लगता, क्योंकि ऐसा होने पर तो रहीम के लिए भी ख़तरा बढ़ जाता। उस वक़्त पूर्ववर्ती शासक वंश के उत्तराधिकारी को समाप्त कर दिया जाता था। वह अफ़ग़ानी मुबारक ख़ाँ मात्र बैरम ख़ाँ का वध कर ही नहीं रुका, बल्कि डेरे पर आक्रमण करके लूटमार भी करने लगा। तब स्वामीभक्त बाबा जम्बूर और मुहम्मद अमीर 'दीवाना' चार वर्षीय रहीम को लेकर किसी तरह अफ़ग़ान लुटेरों से बचते हुए अहमदाबाद जा पहुँचे। चार महीने वहाँ रहकर फिर वे आगरा की तरफ़ चल पड़े। अकबर को जब अपने संरक्षक की हत्या की ख़बर मिली तो उसने रहीम और परिवार की हिफ़ाज़त के लिए कुछ लोगों को इस आदेश के साथ वहाँ भेजा कि उन्हें दरबार में ले आएँ।

ग्रन्थ :

• रहीम दोहावली - रहीम के दोहों का विशाल संकलन
• नगर-शोभा / रहीम
• श्रंगार-सोरठा / रहीम
• मदनाष्टक / रहीम
• संस्कृत श्लोक / रहीम
• बरवै नायिका-भेद / रहीम
• बरवै भक्तिपरक / रहीम
• फुटकर पद / रहीम


रचनाएँ :
• अति अनियारे मानौ सान दै सुधारे
• पट चाहे तन, पेट चाहत छदन
• बड़ेन सों जान पहिचान कै रहीम काह
• मोहिबो निछोहिबो सनेह में तो नयो नाहिं
• जाति हुती सखी गोहन में
• जिहि कारन बार न लाये कछू
• दीन चहैं करतार जिन्हें सुख
• पुतरी अतुरीन कहूँ मिलि कै
• कौन धौं सीखि ’रहीम’ इहाँ
• छबि आवन मोहनलाल की
• कमल-दल नैननि की उनमानि
• उत्तम जाति है बाह्मनी


  

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